मुजफ्फरपुर से कुमार रौशन की कलम से...
भारत में पतंगबाजी के खेल भी क्रिकेट और फुटबॉल आदी के मुक़ाबले कम प्रख्यात नहीं है। हर मोहल्ले में आपको दो-चार पतंगबाज दिख ही जाएँगे, वो भी ऐसे वैसे नहीं पक्के वाले पतंगबाज नहीं तो कच्चे वाले पतंगबाजों की संख्या तो अनगिनत हैं। वैसे तो पतंगबाजी के लिए भारत में एक विशेष त्योहार भी है – मकर संक्रांति। इस दिन पूरे भारत भर में आप बच्चे-बड़ों को पतंग उड़ाते हुए देख सकते हैं। आपको बता दूँ भारत के अलग-अलग प्रांतों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है; जैसे तमिलनाडु में इसे पोंगल, गुजरात में उत्तरायन, असम में बिहू, पंजाब में लोहड़ी आदी। हमारे बिहार में इसे सकरात या खिचड़ी पर्व के नाम से ज़्यादा जाना जाता है।
वैसे अभी मकर-संक्रांति बेहद दूर है। अभी तो दशहरा का भी आगमन नहीं हुआ है। पहले दशहरा होगी फिर दिवाली और फिर हमारे भारत के उत्तरी मैदानी क्षेत्र विशेषतः बिहार, उत्तर प्रदेश एवं झारखंड का महापर्व “छठ” , तब जाकर दो माह बाद उसे आना है। वैसे जो लोग भारत के इन मैदानी क्षेत्रों से नहीं आते हैं उनको यह छठ के विषय में बताना चाहूँगा- हमारे यहाँ छठ एक महापर्व के रूप में मनाया जाता है। आप कभी आइए छठ के समय हमारे गाँव, वो चार दिवसीय पर्व में आपको हमारी संस्कृति का बहुत बड़ा हिस्सा जीने को मिलेगा। हमारे यहाँ तो सावन के बीतते ही कई घरों में इसके गीत सुबह-सुबह आपको सुनने को मिल जाएँगे। और एक बार जो दशहरा खत्म हुआ तो लगभग सभी घरों में। उगते हुए सूरज को तो सभी प्रणाम करते हैं, पर छठ ही वो पर्व है जिसमें डूबते सूरज को भी पुजा जाता है। जिनके भू-भाग में छठ मनाने का रिवाज नहीं हैं, उन्हें सादर आमंत्रण हैं हमारा, कभी आइए छठ में हमारे गाँव वो छठ का प्रसाद विशेषकर – ठकुआ खाने।
होंगे रिवाज पतंग उड़ाने के देश भर में मकर-संक्रांति के उपलक्ष्य पर, पर हमारे मोहल्ले में पतंगबाजी के लिए कोई एक दिन निर्धारित नहीं। यहाँ हर रोज पतंगबाजी होती है। दो पतंग हर रोज आपस में भिड़ती है और एक कट कर जमीन पर आ जाती तो दूसरी शान से हवा में लहराती रहती है। पर दोनों ही अवस्था में खिलाड़ी ( बच्चों ) की उर्जा एक ही समान मिलती है। ऐसा बिल्कुल नहीं समझिएगा कि जिनकी पतंग लहरा रही हैं वही सिर्फ उत्साहित है, बल्कि जिनकी कट गई हैं और एक आवारे पंक्षी के समान उड़ती जा रही है, वो भी उमंग से भरे परे हैं- उस पतंग को लुटने के लिए। और जब कोई पतंग कटती है और वो दौड़ते हैं उस आजाद पतंग को लुटने के लिए उस वक्त मानो जैसे ये धरती की कठोर सतह मखमली हो जाती है और वो उबर-खाबड़ जमीन का समतलीकरण हो जाता है। तभी तो बेतहाशा दौड़ने पर भी उनके नाज़ुक पैरों को कुछ भी नहीं होता।
एक नियम है इस खेल में जो इस खेल को और भी रोमांचक बनाती है- “जरुरी नहीं की जिसने पतंग काटी हो वही उसे लुट सकता है, जिसकी कटी हो वो भी लूटने को दौड़ता है, जिसके हाथ वो लग गई उसका भाग्य और कहीं उड़ते-उड़ते किसी तीसरी के छत पर जा गिरा तो समझ लेना भाग्य उसके गोद में बैठा हुआ है।” हैं ना विचत्र सा नियम। इसलिए ये जानना की आखिर बाज़ी किसने मारी ठीक उतना ही कठिन है ही जितना एक नन्हा बच्चा चलना सिखते समय कब किस ओर लुढ़क जाएगा ये जानना। और एक बार जो पतंग हाथ लग गई, फिर उनका उत्साहित चेहरा देखो, पूरी दुनिया की खुशी एक तरफ और उनकी मुस्कान एक तरफ़। जी आ जाएगा आपका। इच्छा होगी बस देखते ही रहो, बस देखते ही रहो। मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ वो नन्ही सी जान के मुख की खुशी आपको कम से कम उस पल के लिए चिन्तामुक्त करके एक अलग ही परलोक में ले चली जाएगी, जहाँ से आने की इच्छा मैं तो नहीं कर सकता और शायद आप भी नहीं कर पाओगे।
बढ़ती जनसंख्या तो एक समस्या है ही परंतु ये एक और समस्या को जन्म दे रही है, वो है शहरीकरण की रफ़्तार, जो इधर बहुत तेज़ हो गई है। इसके कारण काफी पेड़-पौधे कट रहे हैं, जिससे जलवायु में भी परिवर्तन आ रहा है जो भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है। वहीं खाली मैदानों में बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही है ताकी बढ़ती आबादी के सर पर छत दिया जा सके। इन सब के चक्कर में गिन-चुन कर शहर में कुछ ही मैदानें बची है – बच्चों के खेलने के लिए। अगर यूँ ही चलता रहा, ये मैदानें यूँ ही लुप्त होते गए, तो एक दिन बच्चों के जीवन से भी खेल, मैदानों की तरह ही, लुप्त हो जाएगा। सियासत में बैठे लोगों को सत्ता सुख को छोड़ इस पर विचार-विमर्श करना चाहिए। इसे सुझाव नहीं, चेतावनी समझा जाए वरना इसका प्रभाव बहुत ही भयावह हो जाएगा। क्योंकि पृथ्वी की चंचलता दो ही चीजों से है- एक तो ये पेड़-पोधे और दूसरे ये बच्चे, और बढ़ती आबादी के कारण दोनों ही के ऊपर काले बादल छाने लगे हैं।
वो तो भला हो मेरे मोहल्ले में ही एक खाली जमीन परी है – लगभग दो कट्ठा से उपर की होगी, जिस पर उसके मालिक ने अब तक घर नहीं बनाया है, जिससे बच्चों को खेलने के लिए एक प्रयुक्त स्थान मिल जाता है और इन छोटे-छोटे बच्चों को मोहल्ले से बाहर जाकर खेलने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। वैसे भी दिन-जमाना आजकल का बहुत ही ख़राब है। इस तरह वो हर वक्त अपने माता-पिता के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों से नजरों के सामने रहते हैं। सभी बच्चे उसी खाली जमीन पर पतंग उड़ाते हैं। मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ से वो ज़मीन सीधी दिखती है। इस खेल की एक और नियम सुन लिजिए- “इस खेल में खिलाड़ी की कोई न्यूनतम आयु सीमा नहीं है, बस आपको चलना-दौड़ना आना चाहिए। फिर आप इस खेल को सिखने, खेलने और इसमें प्रांगत हासिल करने के लिए योग्य है।” चार-पाँच साल से लेकर दस-बारह साल के बच्चे वहाँ आते हैं पतंग उड़ाने के लिए। सच, उनका कोलाहल करते हुए खेलना देखने में आनंदमय है।
यही सोच रहे हैं ना कि मैंने अभी उम्र की कोई सीमा न होने की बात कही और खुद ही उनके आयु का अनुमान दे रहा हूँ तो दरअसल बात ये है की आज के इस प्रतियोगी युग में बचपन महज़ इन्हीं पांच से दस साल तक में सिमट कर रह गई है। उसके बाद इन बच्चों की गिनती युवाओं में की जाती है। उनके कंधों पर जिंदगी के नए नए जिम्मेदारियों को डाला जाता है और इसी कारण से ज्यादा उम्र के बच्चे वहाँ नहीं आते हैं खेलने।
अभी तक जो आपने जाना वो सिक्का का एक ही पहलू था। चलिए आपको उसके दूसरे पहलू से भी मिलाता हूँ। अर्थात मैं आपको कुछ नए बच्चों से मिलाता हूँ।
मेरे मोहल्ले में दो तरह के बच्चों की प्रजाति रहती है। पहली जिससे आप अब तक परिचित हो ही चुके हैं, फिर भी चलो एक बार फिर आपको बता ही देता हूँ- देर से उठना, खाना-पीना और मंडली बना कर उस खाली मैदान में पहूँच जाना खेलने व पतंग उड़ाने को और शाम तक वहीं (मैदान) वक्त बिताना, फिर घर जाना, खाना-पीना और सो जाना और अगले दिन फिर यही कार्यों को दोहराना। दूसरी प्रजाति वो है जो सुबह-सुबह उठती है, खाना-पीना-नहाना आदी करती है, बस्ते में कापियां रखती है और विद्यालय जाती है फिर आने के बाद ट्यूशन करती है फिर रात को पढ़ती है, मनोरंजन के लिए टीवी देखती है और फिर सो जाती है। कितना विचित्र है ना- बच्चे एक, मोहल्ला एक, उम्र भी एक समान ही है फिर भी उनके जीवनशैली में इतना फर्क है।
पढ़ाई की जहाँ तक बात करें तो पहले प्रजाति में ये नहीं पाई जाती है वहीं खेल है जो दोनों में पाई जाती है परंतु उसमें भी काफी झोल-जंजाल है। ये बस कहने को हैं कि दोनों के जीवन में खेल है परंतु दोनों के खेल में बेहद भिन्नता है। पहली जहां लुक्का-छुप्पी, पतंगबाजी, घर-घर, पकड़म पकड़ाई, पहाड़ पानी आदि जैसे खेल खेला करती है वहीं दूसरी क्रिकेट, फुटबॉल, शतरंज आदि जैसे खेल खेलती है। किस खेल में क्या भविष्य है आप तो जानते ही हैं। फिर भी ऐसा लगता है उन्हें इस बात का कोई ग़म नहीं, क्योंकि जब भी देखा उनको उमंग से ही भरा देखा, पर हाँ मुझे थोड़ा अखरता है।
कहते हैं एक राज्य का विकास और उसका भविष्य उस राज्य में रहने वाले लोगों से ज्यादा उसकी आने वाली पीढ़ियों पर निर्भर करता है अर्थात इन बच्चों पर। परंतु उस सूची में क्या सिर्फ दूसरी प्रजाति वाले ही आते हैं, पहले वाले नहीं? खैर चलिए अब क्या ही कहें। सत्ताधीशों का भी क्या ही दोष इसमें? वो भी क्या कर सकती है-भाग्य ही ख़राब है इनका। जो झोपड़ियों में पैदा हो गए।
चलिए अपने पतंगबाजी पर वापस आते हैं।
पतंग उड़ाने का कोई समय इनका निर्धारित नहीं है, बस हवा चलनी चाहिए। चाहे वो सुबह के नौ बज रहे हो, दोपहर के दो बज रहे हो या शाम के पांच बज रहे हो- वो दौड़कर अपने मंडली के साथ पहुंच जाते हैं उस मैदानी इलाके में। पतंग उड़ाते वक्त किसी भी चीज की सुध बुध नहीं रहती है। कौन उन्हें देख रहा है, कौन बगल-अगल से जा रहा हैं कुछ भी नहीं। उनका तो ध्यान बस उस आकाश में लहराती पतंग पर होता है। पता नहीं पतंग उड़ाते वक्त उन्हें भूख भी लगती है की नहीं क्योंकि कभी-कभी वो बेसुध होकर घंटों तक पतंग उड़ाते रह जाते हैं। खैर बच्चे की जात को भी भला कौन आज तक समझ पाया है।
मैं वैसे तो कभी पतंग के मज़े को व्यवहारिक रूप से न ले पाया परंतु उनको वो चिन्तामुक्त होकर पतंग उड़ाते देख उस आनंद के कल्पनाओं में खो कर उसके आनंद को जीने की कोशिश करता रहता हूँ। एक यही बच्चे हैं जिनसे ये मोहल्ला, मोहल्ला लगता है, नहीं तो यहाँ किसको फुर्सत एक दूसरे से मिलने की। इन्हीं से मोहल्ले में थोड़ा शोर-शराबा बना रहता है नहीं तो ये वीरान मोहल्ला काटने को दौड़ता है।
इन बच्चों में एक बात है, मैंने इनको पतंग कटने का शोक मनाते कभी भी नहीं देखा। शायद कटने का कोई भय ही ना हो इसलिए कटने का कोई ग़म ना हो। वो जिंदादिली के साथ पतंग उड़ाना, जो होगा देखा जाएगा ये सोच के साथ पतंग उड़ाना और हार और जीत दोनों ही परिस्थितियों को हँसते-हँसते स्वीकार कर लेना कहीं ना कहीं इन बच्चों को हम बड़ों से श्रेष्ठ बनाती है- जीवन को जीने के तरीके में। हम उम्र में तो उनसे बड़े हो गए हैं परंतु जीवन के कई अध्याय ऐसे हैं जिन्हें हमें इन बच्चों से सीखना होगा। इसमें शर्म किस बात का, ज्ञान तो जहाँ से मिले ले लेना चाहिए और वैसे भी ऐसा नहीं है की आप को उन गुणों को सीखने की आवश्यकता है, आप में वो गुण पहले से ही सी विराजमान है, बस आपको उसे पुनः जाग्रत करने की जरूरत है। एक बात और कोई ज़रुरी नहीं की इन जीवन मूल्य गुणों को सिखने के लिए आपको मेरे मोहल्ले में आने की जरूरत है, आप जिस मोहल्ले में हैं आप वहीं इसे सीख सकते हैं, मैंने आपको शुरू में ही बताया था- भारत के हर मोहल्ले में आपको ये पतंगबाज मिल जाएँगे। मैं भी चलता हूँ जरा उनके साथ वक्त बिताने को, आप भी जाईए, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ आपको आनंद की अनुभूति होगी। इसी के साथ मैं अपने शब्दों को पुर्ण विराम देता हूँ।